पत्थरों पर पेंटिंग करोड़ों का बिजनेस

कहते हैं, सच्चे कलाकारों के लिए सारी धरती कागज और सातों समंदर स्याही होते हैं। सुशील भसीन भी ऎसे ही कलाकारों में शुमार हैं। सुशील की कूची जब छोटे-छोटे पत्थरों चलती है तो वे खुद-ब-खुद शक्ल अख्तियार करने लग जाते हैं। एक ग्लोबल कंसलटेंसी फर्म में मार्केटिंग मैनेजर के रूप में कार्यरत सुशील बचपन से ही कलाप्रेमी हैं। वे किसी न किसी रूप में कलाकारी करते रहे हैं। दिल्ली की इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट इन लर्निग एण्ड मैनेजमेंट से एमबीए करने के दौरान भी उन्होंने आर्टवर्क की प्रैक्टिस कभी नहीं छोड़ी।


1996 में स्नातक करने के बाद सुशील ने दिल्ली की एक विज्ञापन एजेंसी में नौकरी की, जहां उन्हें स्ट्रेटजी प्लानिंग टीम में काम करना था। इस काम में सृजनात्मकता की काफी जरूरत थी। सुशील को अपनी पसंद का काम मिलने से वे काफी खुश थे। तीन साल तक यहां काम करने के बाद भसीन ने हच, कोकाकोला और इएक्सएल सर्विसेज सरीखी कम्पनियों के साथ काम किया।

कुदरत से मिली प्रेरणा
 
छोटे गोलाकार पत्थरों पर पेंटिंग करने की प्रेरणा उन्हें 2004 में ऋषिकेश जाने पर मिली, जहां उन्होंने कुदरत द्वारा डिजाइन किए गए चिकने और गोल-गोल पत्थर देखे। भसीन कहते हैं, "कैनवस पर ड्राइंग करते समय आप पूर्ण स्वतंत्र होते हैं और अपनी सृजनात्मकता को दिखा सकते हैं, लेकिन हर छोटे पत्थर का अपना अलग आकार और डिजाइन होता है, उन पर ड्राइंग करने के लिए आपको उस आकार को आधार बनाना पड़ता है। हां, इन पत्थरों को हासिल करना बेहद आसान है और ये लगभग मुफ्त में मिल जाते हैं।"

चल निकली "पेब्लिशिंग" कला
 
ऋषिकेश से दिल्ली लौटने के बाद सुशील ने "पेब्लिशिंग" (पेबल्स पर कलाकारी को उन्होंने यही नाम दिया है) पर काम करना शुरू कर दिया। अपनी पहली कला को उन्होंने एक हजार रूपए में बेचा। बस, उसके बाद से उन्होंने कभी मुड़कर नहीं देखा। जिसने देखा, उसी से सुशील की कला को सराहा। बात फैली। लोगों को पता चला। जल्द ही दिल्ली के शाहपुर जाट में क्रिएटिवगढ़ में उनकी कला का प्रदर्शन हुआ, तो उनकी लोकप्रियता तेजी से फैल गई। सुशील कहते हैं, "मैंने यह एक प्रयोग के तौर पर शुरू किया था, लेकिन लोगों की दिलचस्पी देखकर समझ गया कि इसमें काफी संभावनाएं हैं।

2008 में मुझे जयपुर के एक होटल से पेबल आर्ट का ऑर्डर मिला। बाद में कई कम्पनियों से मुझे उनके लिए स्पेशल डूडल्स डिजाइन करने के आर्डर भी मिलने लगे।"2010 में सुशील को एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी से उनके विदेशी डेलीगेट्स के लिए कुछ खास बनाने का एक लाख रूपए का ऑर्डर मिला। सुशील की कलाकृतियां 200 रूपए से लेकर 2000 रूपए तक की होती हैं। आज उनके डिजाइन किए गए पेबल्स देश के कई बड़े शहरों यथा दिल्ली, बेंगलूरू, मुंबई और हैदराबाद में खूब बिक रहे हैं। आने वाले दिनों में सुशील बड़ी इमारतों को कैनवस की तरह इस्तेमाल करने की योजना बना रहे हैं और उन पर अपनी कला का प्रदर्शन करना चाहते हैं।


-राजेश कुमार
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